Madhu varma

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लेखनी कहानी - प्रेतनी की दरियादिली - डरावनी कहानियाँ

प्रेतनी की दरियादिली - डरावनी कहानियाँ

 गर्मी का महीना। खड़-खड़ दुपहरिया। रमेसर भाई किसी गाँव से गाय खरीद कर लौटे थे। गाय हाल की ही ब्याई थी और तेज धूप के कारण उसका तथा उसके बछड़े का बुरा हाल था। बेचारी गाय करे भी तो क्या, रह-रह कर अपने बछड़े को चाटकर अपना प्यार दर्शा देती थी। रमेसर भाई को भी लगता था कि गाय और बछड़े बहुत प्यासे हैं पर आस-पास में न कोई कुआँ दिखता था और ना ही तालाब आदि। रमेसर भाई रह-रहकर गमछे से अपने पसीने को पोंछ लेते थे और गाय के पीठ पर हाथ फेरते हुए धीरे-धीरे कदमों से पगडंडी पर बढ़ रहे थे। कुछ दूरी पर उन्हें एक बारी (बगीचा) दिखी। उनके मन में आया कि इस बारी में चलते हैं, थोड़ा सुस्ता भी लेंगे तथा शायद वहाँ कोई गढ़ही हो और इन अनबोलतों को पानी भी मिल जाए।
अब रमेसर भाई अपने कदमों को थोड़ा तेज कर दिए और गाय-बछड़े के साथ उस बारी की ओर बढ़ने लगे। बारी बहुत बड़ी थी और उसमें तरह-तरह के पेड़ों के साथ बहुत सारे बड़े-छोटे घास-फूस भी उगे हुए थे। पर गर्मी के कारण इन घास-फूस का भी बहुत ही बुरा हाल था और कुछ सूख गए थे तथा कुछ सूखने के कगार पर थे। बारी में एकदम से सन्नाटा पसरा था, कहीं कोई आवाज नहीं थी पर ज्योंही रमेसर भाई गाय-बछड़े के साथ इस बगीचे में प्रवेश किए, गाय-बछड़े तथा उनके पैरों के नीचे पेड़ से गिरे सूखे पत्तों के आते ही चरर-मरर की एक भयावह आवाज शुरु हो गई। यह आवाज इतनी भयावह थी कि रमेसर भाई के साथ ही गाय और बछड़े भी थोड़ा सहम गए।

रमेसर भाई अब उस बारी के भीतर प्रवेश करना उचित नहीं समझे और किनारे ही एक पेड़ के नीचे पहुँच कर रुकना उचित समझे। छाँव में उन्हें तथा गाय-बछड़े को थोड़ी राहत मिली पर प्यास के कारण उनका बुरा हाल हो रहा था। वे इधर-उधर नजर दौड़ाए पर कहीं पानी नजर नहीं आया। उन्होंने थोड़ी हिम्मत करके गाय-बछड़े को वहीं छोड़कर पानी की तलाश में उस बारी के भीतर प्रवेश करने लगे। उन्हें लगा कि शायद इस बारी के भीतर कोई तालाब हो, वह भले सूख गया हो पर शायद थोड़ा भी पानी मिल जाए। 
रमेसर भाई अब अपने सर पर बँधी पगड़ी को खोलकर गमछे को कमरमें बाँध लिए और मुस्तैदी से लाठी को हाथ में पकड़े बारी के अंदर ढुकने (प्रवेश) लगे। बारी बहुत ही घनी थी और उस खड़-खड़ दुपहरिया में उस बारी में एक अजीब सा खौफनाक सन्नाटे पसरा था। उसी सन्नाटे में रह-रहकर रमेसर भाई के पैरों की नीचे पड़ने वाले पत्ते एक और भी भयावह एहसास करा जाते थे। बारी में काफी अंदर जाने पर रमेसर भाई को एक गढ़ही (तालाब) दिखी। उसके पेटे में थोड़ा सा स्वच्छ पानी भी था। पर उस गढ़ही के किनारे का नजारा देखकर रमेसर भाई के कदम ठिठक गए। अनायास की उनके माथे से पसीने की बूँदें टप-टपाने लगीं। उनके कदम अब ना आगे ही बढ़ रहे थे और ना ही पीछे ही।
दरअसल गढ़ही किनारे कुछ भूत-प्रेत हुल्लड़बाजी कर रहे थे। एक दूसरे के साथ मस्ती कर रहे थे और कभी-कभी उछलकर पानी में भी गिर जाते थे या दूसरे भूत-भूतनी को पानी में ढकेल देते थे। वहीं पास के पेड़ों पर भी इधर-उधर कुछ भूत-प्रेत उन्हें बैठे नजर आए। इन भूतों में से कुछ बहुत ही भयंकर थे तो कुछ बहुत ही छोटे। किसी के पैर नहीं थे तो किसी के ४-५ पैर। वहीं उनको एक ऐसा भूत भी दिखा जो पूरी तरह से बालों से ढका था और बहुत ही विकराल था। हाँ पर पेड़ पर बैठे 1-2 भूत ऐसे थे जो देखने में एकदम आदमी सरीखे दिखते थे। ऐसा लगता था कि गाँव का ही कोई आदमी तमाशबीन के रूप में इन पेड़ों पर बैठा है। यह माहौल भले रमेसर भाई के लिए डरावना था पर उन भूत-भूतनियों के लिए उल्लासमय।
 
 
अब रमेसर भाई क्या करें। 2-4 मिनट बाद कुछ हिम्मत कर मन ही मन हनुमानजी का नाम गोहराने लगे और धीरे-धीरे बिना पीछे मुड़ें, सामने देखते हुए पीछे की ओर चलने लगे। चुपचाप कुछ देर चलने के बाद, अचानक घूम गए और जय हनुमानजी, जय हनुमानजी कहते हुए लंक लगा कर गाय वाली दिशा में भागे। गाय के पास पहुँचकर ही रूके। गाय के पास पहुँचते ही वे गाय के शरीर पर हाथ रख दिए। गाय थोड़ी सी शांति और छाया पाकर वहीं बैठ गई थी और उसका बछड़ा भी चुपचाप पूंछ हिलाते हुए वहीं खड़ा था। कहा जाता है कि गौ-वंश का साथ हो तो भूत-प्रेत पास नहीं आते। खैर उनके पास तो गाय ही थी जिसमें देवताओं का वास होता है तो फिर क्या डरना। उन्हें लगा कि अगर भूत-प्रेत हल्ला बोलेंगे तो वे गाय से चिपककर इस बारी से दूर हो जाएंगे।
पाँच मिनट तक वे गाय के पास ही उससे सटकर बैठ गए। गाय के पास बैठने पर उनका डर थोड़ा कम हुआ और हिम्मत भी लौट आई। रमेसर भाई सोचे कि अरे मैं तो गबढ़ू जवान हूँ। रोज पहलवानी भी करता हूँ। अखाड़ें में कोई मेरी पीठ नहीं लगा पाता और मैं आज इतना डर गया। अरे इन भूत-प्रेतों से क्या डरना। आज मैं हर हालत में इनका सामना करूँगा और देखता हूँ कि ये भूत-प्रेत मेरा क्या बिगाड़ पाते हैं?अगर आवश्यकता पड़ी तो इन सबको ललकार दूँगा और दौड़ा-दौड़ाकर मारूँगा। (दरअसल बात यह थी कि रमेसर भाई बहुत ही निडर स्वभाव के थे और अकेले ही रात में गाँव से दूर तक घूम आते थे। रात को नहर के पानी से दूर-दराज के खेतों को भी पटा आते थे और आवश्यक होने पर दूर-दराज के खेतों में भी अकेले ही सो जाते थे। कभी-कभी तो वे गाय चराने अकेले ही दूर तक जंगल में भी चले जाते थे।) गाय के पास बैठे-बैठे ही अचानक रमेसर भाई के जेहन में यह ख्याल आया कि क्यों नहीं गाय और बछड़े को लेकर इस गढ़ही के पास चला जाए। हम तीनों को पीने का पानी भी मिल जाएगा और भूत-प्रेतों को और नजदीक से देखने का मौका भी। उनके दिमाग में यह भी बात थी कि जब गाय-बछड़े साथ में हैं तो भूत-प्रेत तो मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
रमेसर भाई उठे और गाय का पगहा सहित गरियाँव (गले में लगी रस्सी) पकड़कर गढ़ही की ओर निर्भीक होकर बढ़ने लगे। गाय के पीछे-पीछे बछड़ू भी चलने लगा। ज्योंही रमेसर भाई गाय को लेकर गढ़ही के पास पहुँचे, गाय, बछड़ू और उनके पैरों के कारण चरमराते पत्तों आदि से उन भूत-प्रेतों के रंग में भंग पड़ गया। सभी चौकन्ने होकर रमेसर भाई की ओर देखने लगे। एक बड़ा भूत तो गुस्से में रमेसर भाई की ओर बढ़ा भी पर पता नहीं क्यों अचानक रूक गया और पास के ही एक पेड़ पर चढ़ बैठा। रमेसर भाई निडर होकर गढ़ही के किनारे पहुँचे पर अरे यह क्या, वे तथा गाय व बछड़ूे पानी कैसे पिएंगे, क्योंकि उनके आगे, थोड़ी दूर पर पानी के किनारे कई सारे डरावने भूत-भूतनी खड़े नजर आए। कुछ का चेहरा बहुत ही भयावह था तो किसी की डरावनी चीख हृदय को कँपाने के लिए काफी थी। गाय भी पूरी तरह से सहम गई थी और अब आगे नहीं बढ़ रही थी। रमेसर भाई कितना भी कोशिश करते पर गाय आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही थी और भागने का मन बना ली थी।
रमेसर भाई ने अपनी हिम्मत को बनाए रखना ही ठीक समझा और गाय के गरियाँव को और कसकर पकड़ लिए। अब रमेसर भाई एक हाथ में लाठी को भांजते हुए तथा गाय को खींचते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे। वे दहाड़े कि मैं भूत-प्रेत से नहीं डरता और इस समय ये जानवर बहुत ही प्यासे हैं। मैं हर-हालत में अपनी जान की बाजी लगाकर भी इन दोनों को पानी पिलाने के बाद ही पीछे हटूँगा। पर उधर भूत-भूतनी भी तस से मस होने का नाम नहीं ले रहे थे और कुछ तो अपना गुस्सा दिखाने के लिए पास की डालियों को कूदते-फाँदते, मोटी-पतली डालियों को तोड़ते नजर आने लगे। कुछ पानी में कूदकर उसे गंदा भी करने लगे। अब बारी का माहौल और भी डरावना होने लगा था, इतना डरावना कि कमजोर दिल वालों के मुँह में प्राण आ जाएँ।
खैर अब ना भूत-प्रेत ही पीछे हट रहे थे और ना ही रमेसर भाई ही। पर गाय एकदम से डरी-सहमी खड़ी थी और उसका बछड़ा भागकर थोड़ा दूर जाकर खड़ा होकर इन भूत-प्रेतों को एकटक निहार रहा था। उसे पता ही नहीं चल पा रहा था कि यहाँ क्या हो रहा है। अचानक रमेसर भाई अपनी ओर बढ़ते एक भयंकर भूत को, गाय का पगहा पकड़े-पकड़े ही तेजी से आगे बढ़कर पानी में धकेल दिए और फिर से तेजी से आकर गाय के पास सट गए। अब तो उन भूतों में से कुछ डरे-सहमे भी नजर आने लगे और पता नहीं चला कि कब कुछ भूत गायब ही गए। पर अभी ५-७ भूत-भूतनी रमेसर भाई का रास्ता रोके खड़े थे। 
अचानक उस बगीचे में तूफान आ गया। एक बहुत ही तेज आँधी उठी और उस आँधी में बहुत सारे पत्ते, सूखे खर-पात आदि बारी में उड़ते नजर आए। पेड़ों की डालियाँ एक दूसरे से टकराने लगीं और रमेसर भाई के साथ ही वहाँ उपस्थित भूत-प्रेत भी सहम गए क्योंकि उस समय किसी को पता नहीं चल रहा था कि यह क्या हो रहा है। इसी तूफान के बीच वहाँ एक खूबसूरत महिला प्रकट हुई। उसे आते किसी ने भी नहीं देखा। उस नवयौवना के चेहरे पर एक खूबसूरत मुस्कान थी। उस नवयौवना को देखते ही सारे भूत-प्रेत अपना सर नीचे कर लिए, ऐसा लगा कि उसके सम्मान में झुक गए हों। अचानक महिला सौम्य आवाज में बोली कि किसी प्यासे को पानी पीने से रोकना अच्छी बात नहीं। क्योंकि हम लोग भी तो पहले इंसान ही थे। आखिर हममें से भी कई तो कुछ दुर्घटनाओं के शिकार हुए हैं। मुझे याद है एक बार मैं अपनी माँ, बहन तथा अपने गाँव की सखी-सहेलियों के साथ पैदल ही एक मेले में जा रही थी। उस समय मेरी उम्र कोई ८-१० साल रही होगी। मेला मेरे गाँव से काफी दूर था। गर्मी का ही मौसम था और हम लोग घुरहुरिया (घास-फूस वाली पगडंडी) रास्ते से जा रहे थे। अचानक रास्ते में कुछ ऐसा हुआ कि मैं अपने गोल से अलग होकर रास्ता भटक गई। और उन लोगों को खोजते-खाजते दूसरी दिशा में निकल गई। अचानक डर के मारे और तेज धूप के कारण मुझे असहनीय प्यास लगी। और इधर-इधर खोजबीन करने के बाद भी पानी न मिलने के कारण मैं अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई। इतना कहते ही उस तरूणी प्रेतनी का चेहरा गुमसुम हो गया। आँखों से आँसुओं की धार बह चली। रमेसर भाई भी भावुक हो चले। ऐसा लगा कि गाय भी उस प्रेतनी के प्रति अपनी सहानुभूति दर्शा रही हो, क्योंकि गाय आगे बढ़कर उस तरूणी के पाँवों को चाट रही थी।
रमेसर भाई अपने जीवन में कभी ऐसी खूबसूरत भूतनी नहीं देखे थे। चूँकि वे कई बार रात-बिरात घर से दूर एकांत में रहते थे तो उन्हें भूत-प्रेतों से पाला तो पड़ ही जाता था पर पहली बार एक ऐसी भूतनी से मिले जिसके प्रति उनके दिल में प्रेम उमड़ आया। अगर वह इंसान होती तो वे उसे जरूर लेकर अपने घर पर आते और उसकी खातिरदारी करते। खैर उस नवयौवना प्रेतनी की बात सुनते ही सारे भूत गढ़ही से दूर हो गए और रमेसर भाई अपनी गाय के साथ छककर पानी पिए। उस गढ़ई का पानी भी बहुत मिठऊ था या ऐसा कह सकते हैं कि प्यास इतनी तीव्र थी कि वह पानी नहीं अमृत लग रहा था। बछड़ा भी अब कोरड़ाकर गड़ही किनारे आ गया और पानी पीने लगा। पानी पीने के बाद रमेसर भाई अपने अँगोछे को पानी में भिगोकर गाय तथा बछड़े के शरीर पर मलने लगे। गाय और बछड़े को अब पूरी राहत मिल चुकी थी।
रमेसर भाई मन ही मन उस तरूणी भूतनी का गुणगान करते हुए बारी से बाहर आने लगे। बारी से बाहर आने के बाद जब रमेसर भाई घूमकर बारी की ओर देखे तो उस तरूणी भूतनी को बाहर के एक पेड़ के नीचे खड़े पाया। वह प्रेतनी प्रेम-भाव से रमेसर भाई को निहार रही थी। रमेसर भाई दो मिनट खड़े रहकर उस प्रेतनी से नैनचार किए और शायद फिर मिलने की आस लिए गाँव की ओर चल दिए।

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